ग़ज़ल- आइने सी तिरी जवानी भी


बदज़ुबानी भी मेहरबानी भी
आइने सी  तिरी  जवानी भी।

देख अपनो की बदगुमानी भी
भूल  बैठा वो ज़ीस्त फ़ानी भी।

इस मुहब्बत में है नशा इतना
खो  न  दूँ  होश दरम्यानी भी।

आशियाँ  को  सवारने  वाली
पुरअसर माँ की हुक्मरानी भी।

हौसले  में  भी  मेरे  पँख लगे
सब  सुनेगे  मेरी  कहानी  भी।

ज़िन्दगी को संवारिये कितना
ज़िन्दगी आदमी की फ़ानी भी।

ग़र हो मदहोशियाँ तो ऐ"आकिब'
ज़िन्दगी  में   हो  सावधानी  भी।

~आकिब जावेद






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