डायरी के पन्नों से…(रसोइयों को भेंट प्रदान करना)

डायरी के पन्नों से…(रसोइयों को भेंट प्रदान करना)

आज विद्यालय का आँगन कुछ अलग ही उजास से भरा था। ठंड की सुबह थी, हवा में कंपकंपी थी, पर दिल के भीतर अपनापन और गर्माहट साफ महसूस हो रही थी।

रोज़ की तरह विद्यालय को स्वच्छ रखने वाली और बच्चों के लिए प्रेम से भोजन बनाने वाली हमारी रसोइयाँ अपने काम में जुटी थीं। उनके हाथों के स्वाद और मेहनत से ही तो विद्यालय जीवंत रहता है।

आज ठंड को देखते हुए मैंने सभी रसोइयों को स्वेटर भेंट किए। यह कोई बड़ा काम नहीं था, पर उनके चेहरों पर आई मुस्कान ने इसे बहुत बड़ा बना दिया।चेहरे पर खुशी देखते ही बनती थी- आँखों में चमक और होंठों पर सच्ची मुस्कान। ऐसा लगा जैसे ठंड के साथ-साथ जीवन की थोड़ी-सी कठिनाई भी कम हो गई हो।

हमारे यहाँ एक रसोइया ऐसी भी हैं, जिनका आगे-पीछे कोई नहीं है। जीवन ने उन्हें बहुत कुछ सहना सिखाया है,जिनको हम प्यार से बुआ कहते है।वैसे विद्यालय की सभी रसोइयों को प्रेम से बुआ बुलाते है। जब ठंड के मौसम में उन्हें स्वेटर मिला, तो उनका चेहरा खुशी से खिल उठा। उस पल ने दिल को छू लिया। लगा जैसे किसी ने सिर्फ कपड़ा नहीं, बल्कि अपनापन ओढ़ा दिया हो। 

आज समझ आया कि सेवा का असली सुख दिखावे में नहीं, बल्कि सामने वाले की आँखों में उभरती संतुष्टि में होता है। यह दिन यादों में दर्ज हो गया।

यह दिन अवश्य साधारण था परन्तु यादों में बस गया है।

आकिब जावेद


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