कविता - मिथ्या जगत

मिथ्या जगत का 
भरोसा नही,
आकस्मिक घटना का कोई
मुकर्र समय नही।
आपा धापी ने बना दिया है,
मुसाफ़िर
इस ज़िंदगी में कई ज़िंदगी
गुजर रही है।
बना है मुसाफ़िर उस मकान का,
जिसको होना है फना एक दिन
फिर अपने थोड़े से जमीं को
ले कर आराम करना है ता - उम्र
फिर ये सब जहां में फैला क्या है?
इतना फितना,फसाद क्या है?
रूह क्यों भटक रही है दर - बदर
दर -बदर फिर ये ज़िंदगी क्यों है?
इतनी मक्कारी क्यों है?
क्यों है लालच, हवस का शिकार आदमी? 
सब का खून एक है
सब की हड्डियां,मांस का लोथड़ा वही,
वही सबकी रानाइयां।
सबको मिला आसमां,
मिली सबको जमीं,
फिर सब आपस में 
जुदा -जुदा क्यों है?
सोचो ब्रह्मांड बनाया किसने
किसने बनाया इंसान?
कुदरत के करिश्मा को 
नही झुठला सकता इंसान।

आकिब जावेद

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