कविता :दो जून की रोटी

तनाव जीवन में,
जीवन को लीलने आता है।
स्तब्ध हो जाते हैं
मनुष्य 
तनाव को झेलते - झेलते।

सामाजिक,आर्थिक रूप से सम्पन्न
उनको तनाव दूसरे स्तर का होता है 
गरीब, मज़दूरों को,
दो जून की रोटी का तनाव सताता है।

पेट की आग झेलते - झेलते
ठंडे हो जाते हैं नयन,
लेकिन जठराग्नि बेचैन रहती है,
तनाव बना रहता है 
दो जून की रोटी के खातिर।


आकिब जावेद

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