• Apr 13, 2025

कविता : रील बनाने वाली सभ्यता

कविता

रील बनाने वाली सभ्यता से
सभी उम्मीद लगाए हैं
संस्कारवान बनने के लिए,
जो बने हुए है
चकर घिन्नी
व्यूज और लाइक के चक्कर में।

अंग प्रदर्शन मानो
स्टाम्प है
इन सबकी
सफलता के लिए।

मीडिया सोशल न होके
बना रहा सबको असामाजिक
दो मुँहा समाज
अपने चाल चरित्र को
संभालते - संभालते
धँस जाता है
करोड़ों फिट अंदर।

एआई ने बिगाड़ दिए है
सबके खेल
नियम बदलना ही होगा
बुद्धि पैनी करनी होगी
लेकिन कैसे?
गोबर भर चुका है
सड़ चुकी है बुद्धि
एवं
नग्न प्रदर्शन हावी है
आज की पीढ़ी में।

अपने कौशल को
सबको निखारना होगा
शिक्षा,बुद्धि , बल - विवेक,
धैर्य से आगे बढ़ना होगा।
सौहार्द, बंधुत्व,सामाजिक न्याय
से समाज को जोड़ना होगा।

तमाम बेहूदे , अड़भंगे कृत्यों
से बच गए तो
याद करेगी सदी हमको
वर्ना नष्ट,जीर्ण - शीर्ण कर रहे है स्वयं को।

आकिब जावेद


एक टिप्पणी भेजें

5 टिप्पणियाँ

Thanks For Visit My Blog.