जंगल में सब मस्त है
नहीं पूछता कोई
कौन कौन यहां त्रस्त है।
सभी जानवर प्रतिदिन नित्य क्रिया में लीन रहते
कुछ जानवर आकर गुफ़ा में विलीन रहते।
शेर कुछ न कुछ नया नियम बनाता
कुछ जानवरों को वो हमेशा डराता।
शेर को भी शायद भय सताता था,
जानवरो की एकता से डर जाता था।
नफरत फैलाना उसने भी जारी रखा,
सोचा उसने सबको डरवा कर रखूंगा
एक एक करके सबका स्वाद चखूंगा।
कुछ जानवर उसमे बुद्धिमान थे,
पास में रखते कुछ स्वाभिमान थे।
एक स्वर में जंगल से आवाज आई,
नफरत को दूर करो जंगल से भाई।
सबने मिलकर शेर को हराया,
जंगल से दूर उसको भगाया।
जंगल में कितनी शांति आई,
लोकतंत्र की चिड़िया चहचहाई।।
आकिब जावेद कवि,बांदा,उत्तर प्रदेश
स्वरचित / मौलिक
10 टिप्पणियाँ
सुन्दर
जवाब देंहटाएंबहुत शुक्रिया आपका
हटाएंवाह! सुन्दर और सटीक
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया आपका
हटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंबहुत शुक्रिया आपका
हटाएंजंगल सा लोकतंत्र है और लोकतंत्र सा जंगल है सभी का अपनी -अपनी डफली अपना -अपना राग है! सार्थक रचना!
जवाब देंहटाएंसादर आभार आपका
हटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंबहुत शुक्रिया आपका
हटाएंThanks For Visit My Blog.