कविता : कौन हो बे



कौन हो बे।
सन्न सी चीरती आवाज कानों तक आती है
जैसे चीरती हो मन को और घायल कर देती है।
जोर से अंतर्मन चीखती हुई कहती हो
मै हूं तेरा भूत,वर्तमान और भविष्य।

आती है जब दुबारा आवाज कौन हो बे।
किसी ने पूछ लिया हो जाति - धर्म या नस्ल
पूछा हो जैसे किसी ने श्रेष्ठता के बोध से
नहीं बताना चाहता है मन कौन हूं मैं
हिंदुस्तान हूं,संविधान हूं
मानव जाति का इंसान हूं मैं।

कौन हो बे।
आती जब आवाज किसी के रिश्ते के लिए
जैसे उसने कह दिया हो बेरोजगार हो
आर्थिक रुप से अशक्त हो।
फिर मन हो जाता है खिन्न
नहीं हूं कमजोर मैं।
मेरा भविष्य है उजव्वल
हूं मैं उद्योगपति ,राजनेता, सांसद,विधायक
यहां तक कि मैं ही प्रधानमंत्री,राष्ट्रपति हूं।

सुनाई नही देती आवाज अब कानों तक
कौन हो बे
वर्ना बता देता की मैं ही तो हूं
जो पूछता है सबसे
कौन हो बे।

आकिब जावेद

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