2122-1122-1122-22(112)
राहबर सारे हों बेकार ज़ुरूरी तो नहीं
हों धुले दूध से अख़बार ज़ुरूरी तो नही।
बिक रहा सच भी सारे आम अब ज़माने में
सच जहाँ में हो गुनाहग़ार ज़ुरूरी तो नही।
ज़िन्दगी के कई रंग देखने को अब मिलते
दर्द के सब हों ख़रीदार ज़ुरूरी तो नही।
हम यहाँ दैरो-हरम में नही दिल में रहें
सबके दिल मे हो यहां रार ज़ुरूरी तो नही।
मीडिया भी यहां बाज़ार में बिकती देखी
यों मिले प्यार लगातार जरूरी तो नही।
सर-फिरे लोग ही करते है यहां खून ख़राबा
सब हों उल्फ़त में गिरफ्तार ज़ुरूरी तो नही।
✍️आकिब जावेद
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