अनसुलझा हुआ सा हूँ
थोड़ा सुलझा दो मुझे भी
कंही खोया हुआ सा हूँ
खुद से मिला दो मुझे भी
..
नही मिला पाओगे मुझे
मुझमे ही डूब जाओगे
हा पता है मुझे....
वो साथ मेरे यूँ चलना तेरा
हाथों में हाथ मेरे रखना तेरा
वो मेरे आंसुओं पे हंसना तेरा
भूल गई हो तुम सब
लेकिन पता है मुझे।
घने कोहरे में मचलना तेरा
बारिश पे भींग जाना तेरा
वो आँखों में आँख डालना तेरा
खो गयी हो तुम कँही
हा पता है मुझे...
अनसुलझा ही सही
सुलझा दो मुझे
हकीकत में ना सही
ख्वाबो में फिर..
वैसे खुद से मिलवा दो मुझे..
नही कर पाओगी तुम...
हा पता है मुझे...
✍️आकिब जावेद
4 टिप्पणियाँ
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (20-04-2019) को "रिश्तों की चाय" (चर्चा अंक-3311) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
- अनीता सैनी
जी आपका बहुत बहुत आभार
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंआपका बहुत शुक्रिया☺️आप अन्य रचनाओं में भी अपनी एक नज़र फ़रमा दे।
जवाब देंहटाएंThanks For Visit My Blog.