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“तुमसे पहले वो जो इक शख्स यहां तख़्त नशीं था
उसको भी अपने ख़ुदा होने का इतना ही यकीं था”
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*हबीब जालिब की नज्म दस्तूर*
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दस्तूर (संविधान)
दीप जिसका महल्लात (महलों) ही में जले
चंद लोगों की ख़ुशियों को लेकर चले
वो जो साए में हर हर मसलहत के पले
ऐसे दस्तूर को सुब्हे बेनूर को
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता
मैं भी ख़ायफ़ नहीं तख्त-ए-दार (फाँसी का तख़्ता) से
मैं भी मंसूर हूँ कह दो अग़ियार से
क्यूँ डराते हो जिन्दाँ (जेल) की दीवार से
ज़ुल्म की बात को, जेहल की रात को
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता
फूल शाख़ों पे खिलने लगे, तुम कहो
जाम रिंदों को मिलने लगे, तुम कहो
चाक सीनों के सिलने लगे, तुम कहो
इस खुले झूठ को जेहन की लूट को
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता
तूमने लूटा है सदियों हमारा सुकूँ
अब न हम पर चलेगा तुम्हारा फुसूँ
चारागर मैं तुम्हें किस तरह से कहूँ
तुम नहीं चारागर, कोई माने मगर
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता
शाह का मुसाहिब मतलब हाकिम का, गद्दीनशीनों का दरबारी आदमी. ज़्यादा ही तल्ख़ लहजे में कहा जाए तो सत्ताधीशों का चमचा. अब मिलिए एक ऐसे शायर से जिसने शाह के मुसाहिब पर ही कुछ ऐसा लिखा ग़ालिब की बात पर भी भारी पड़ गया. शायर का नाम है ‘हबीब जालिब’ जो कहते हैं,
“कुछ भी कहते हैं कहें शह के मुसाहिब जालिब
रंग रखना यही अपना, इसी सूरत लिखना
हम ने जो भूल के भी शह का क़सीदा न लिखा
शायद आया इसी ख़ूबी की बदौलत लिखना “
“जिनको था ज़बां पे नाज़
चुप हैं वो ज़बांदराज़
चैन है समाज में
वे मिसाल फ़र्क है
कल में और आज में
अपने खर्च पर हैं क़ैद
लोग तेरे राज में
आदमी है वो बड़ा
दर पे जो रहे पड़ा
जो पनाह मांग ले
उसकी बख़्श दे ख़ता
मैंने उससे ये कहा, मैंने उससे ये कहा”
“बोलते जो चंद हैं
सब ये शर पसंद हैं
इनकी खींच ले ज़बां
इनका घोंट दे गला”
“
“ज़ुल्मत को ज़िया, सरसर को सबा, बंदे को ख़ुदा क्या लिखना
पत्थर को गुहर, दीवार को दर, कर्गस को हुमा क्या लिखना
इक हश्र बपा है घर घर में, दम घुटता है गुंबद-ए-बेदर में
इक शख्स के हाथों मुद्दत से, रुसवा है वतन दुनिया भर में
ऐ दीदा-वरो इस ज़िल्लत को क़िस्मत का लिखा क्या लिखना
ज़ुल्मत को ज़िया, सरसर को सबा, बंदे को ख़ुदा क्या लिखना
लोगों पे ही हम ने जां वारी, की हम ने उन्हीं की ग़म-ख़ारी
होते हैं तो हों ये हाथ क़लम, शा’इर न बनेंगे दरबारी
इब्लीस-नुमा इंसानों की ऐ दोस्त सना क्या लिखना
ज़ुल्मत को ज़िया, सरसर को सबा, बंदे को ख़ुदा क्या लिखना
हक़ बात पे कोड़े और ज़िन्दां, बातिल के शिकंजे मैं है ये जां
इंसां हैं कि सहमे बैठे हैं, खूंखार दरिंदे हैं रक्सां
इस ज़ुल्म-ओ-सितम को लुत्फ़-ओ-करम, इस दुख को दवा क्या लिखना
ज़ुल्मत को ज़िया, सरसर को सबा, बंदे को ख़ुदा क्या लिखना
हर शाम यहाँ शाम-ए-वीरां, आसेबज़दा रस्ते गलियां
जिस शहर की धुन में निकले थे, वो शहर दिल-ए-बर्बाद कहां
सहरा को चमन, बन को गुलशन, बादल को रिदा क्या लिखना
ज़ुल्मत को ज़िया, सरसर को सबा, बंदे को ख़ुदा क्या लिखना
ऐ मेरे वतन के फ़नकारों, ज़ुल्मत पे न अपना फ़न वारो
ये महल-सराओं के बासी, क़ातिल हैं सभी अपने यारो
विरसे में हमें ये ग़म है मिला, इस ग़म को नया क्या लिखना
ज़ुल्मत को ज़िया, सरसर को सबा, बंदे को ख़ुदा क्या लिखना”
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