सागर
बहुत कुछ समेटे,खुद को भुलाये
बहता जा रहा हैं,सहता जा रहा हैं
असंख्य मोती को घेरे,शीपो को लिये
चलता जा रहा हैं, बहता जा रहा हैं
कंही कोई नाव,कंही कोई लंगर
सीने में लिए बहता जा रहा हैं
अमावस्या हो या कि पूर्णिमा
काली घनी रात हो या कि उजाला
सब को देखता जा रहा हैं, बहता जा रहा हैं
ना कुछ कहे,ना कुछ सुने
एक सिरे से दूसरे सिरे में नही मिलता कभी
बिना मिले बस बहता जा रहा हैं
कभी खामोश रहता,तो कभी रौद्र होता
सागर हैं ये सब कुछ हैं करता
अपना रूप किसी को नही बता रहा हैं
सागर हैं ये बस बहता जा रहा हैं।।
®आकिब जावेद
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