जाला
बुन लिया है जाला मनुष्य ने
विचारों एवं आंखों में
जिसमें उलझा है मन।
उलझ गई है
अंतरिक्ष से आती रोशनी
किसी जाले में
छाया हुआ है विकट अंधेरा
मनुष्य के मन - मस्तिष्क में।
किसी जाले में फंसे पड़े हैं
सत्य , न्याय , निष्ठा , ईमानदारी
एवं प्रेम।
नफ़रत के अंधेरे जाले में कैद है
गरीबी , मेहनतकश मज़दूर
स्त्री की लज़्जा एवं सम्मान
पीढ़ी से।
जालों से दिखता है
समुद्र की उथली परतों की भांति छुआ छूत।
जो इंकार करती हो मनुष्यता को।
जालों के पर्दे को छांट कर
स्थापित होगी एक परत जो
समानता,बंधुत्व,न्याय आधारित होगी।
आकिब जावेद
बांदा ,उत्तर प्रदेश
10 टिप्पणियाँ
❤️❤️❤️❤️❤️
जवाब देंहटाएंबहुत शुक्रिया आपका
हटाएंसुंदर शाब्दिक चित्रण 👌🏻👌🏻
जवाब देंहटाएंक्रांति सर बहुत शुक्रिया आपका
हटाएंसुंदर अभिव्यक्ति 👌
जवाब देंहटाएंबहुत शुक्रिया मैम
हटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंबहुत शुक्रिया आपका
हटाएंशानदार अतुकान्त कविता
जवाब देंहटाएंबहुत शुक्रिया आपका
हटाएंThanks For Visit My Blog.