कविता : यादें

मुट्ठी भींचे आंगन में बैठी बुढ़िया
माथे में अनगिनत लकीरें उभारें हुई कुछ सोच रही है
सामने देहरी में बैठा बबुवा मुस्कुरा रहा है
क्या कहना चाह रही है बुढ़िया?
बबुवा समझ नही पा रहा है।
शायद उसे कहनी हो कहानी पुरानी
बतानी हो सारी जिंदगानी
लेकिन जाती है झेंप
डरती है कहने से
अपने ही घर में रहने से।

दो रोटी सूखी सी
दो दिन की भूखी सी
चाहती है रहना साथ
करना चाहती है बात
लेकिन डरती है बबुवा से
निकाल न दे अपने ही घर से

जिस छोटे आंगन में पाला हो
खिलाया मुंह का निवाला हो
कैसे निकाल कर कलेजा दिखाए अपना
किससे जा कर दुखड़ा अब सुनाए अपना।

आखिर भींच ली उसने मुट्ठी
बोल दिया नही करनी बातें
रह गई सिर्फ़ उसकी यादें।

आकिब जावेद

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