कविता : त्रस्त हूँ मैं

इस कलियुग के दौर से
व्यभिचारी के तौर से
भ्रस्टाचार के जोर से
बलात्कार के शोर से
त्रस्त हूँ मै

राजनीति के नए प्रयोग से
जाति-धर्म के बढ़ते भोग से
गंदी मानसिकता के रोग से
पत्रिकारिता के नए ढोंग से
त्रस्त हूँ मै

इन झूठे अधिकारों से
समाज में मिलते धिक्कारो से
ऐसे सरकारी मक्कारो से
देश में बैठे गद्दारो से
त्रस्त हूँ मै

राष्ट्रवादिता की झूठी दुकान से
संविधान के होते अपमान से
खोते बाबा साहेब के सम्मान से
गांधी के छवि के नुकसान से
त्रस्त हूँ मै

जीवन की आपाधापी से
ज़िन्दगी के कठिन मोड़ से
नित रोज नये होते शोर से
बदलते समय के जोर से
त्रस्त हूँ मै

-आकिब जावेद

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4 टिप्पणियाँ

  1. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (21-04-2019)"सज गई अमराईंयां" (चर्चा अंक-3312) को पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    - अनीता सैनी

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  2. आपका बहुत शुक्रिया जी☺️आप अन्य रचनाओं में भी एक नज़र डाल कर इनायत करे☺️

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  3. आपका बहुत शुक्रिया जी☺️आप अन्य रचनाओं में भी एक नज़र डाल कर इनायत करे☺️

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