बहुत उलझन में हूँ,
रस्ते भटक रहे है अब!
कंकड़ियां सवाल कर रही मुझसे,
जवाब किसी गुफ़ा में चले गए है।
नदी में समुद्र कूद रहा है मौन सा,
पौधे पेड़ो से करते है चतुराई,
बहुत उलझन में हूँ!
शोर ने ताला लगा दिया मौन पर,
उलझने दिमाग से करे शिकायत,
वहस ज़िन्दा निगल रही ज़िन्दगी,
क्रूरता ने ख़ूबसूरती पे डाला पहरा।
बहुत उलझन में हूँ,
रस्ते भटक रहे है अब!
ख़ामोशियाँ ले रही अँगड़ाई,
चुप्पी गुम किसी सीवान में,
लहरें उफ़ान मार रही मौज़ो पर,
ज्वार कब से उठ रहा दिल में।
बहुत उलझन में हूँ,
रस्ते भटक रहे है अब!
चाहतो पे ज़रूरत भारी,
ख़्वाब में हक़ीक़त हावी,
सुख-चैन छिन रहा सब,
जबसे जिम्मेवारी आयी।
बहुत उलझन में हूँ,
रस्ते भटक रहे है अब!
-आकिब जावेद
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