विधा- ग़ज़ल
वज़्न- 1222 1222 122
काफ़िया- आ, रदीफ़- हमारा
मकाँ वैसा ही हैं जैसा हमारा
बयाँ उसने किया किस्सा हमारा।।
पुराना खँडहर जैसा बना हैं
बताता कोई हो हिस्सा हमारा।।
भले ही तल्ख़ रिश्ते उनसे हुये हैं
ज़ुबाँ पे रहता हैं किस्सा हमारा।।
छुपाये बैठे हो क्यों आरज़ू तुम
पढ़ो तुम भी ज़रा चेहरा हमारा।।
रुको तुम शह्र में तो देखना ये
बज़ेगा शह्र में डंका हमारा।।
सियासत का अज़ब ये ज़माना हैं
सियासत से नही रिश्ता हमारा।।
मुहब्बत मुल्क से हमकों बहुत हैं
मिला हैं खून का हिस्सा हमारा
आकिब जावद
बाँदा,उत्तर प्रदेश
स्वरचित/मौलिक
0 टिप्पणियाँ
Thanks For Visit My Blog.