मीर तक़ी मीर
ऊर्दू के मशहूर शायर
भारतीय संस्कृति में ईश्वर का एक नाम "कवि "भी है ।
मीर अकेले ऐसे शायर हैं जिन्हें
"ख़ुदा _ए _सुख़न "(काव्य का ईश्वर) कहा गया है ।
वास्तव में "वहदत _उल वजूद "
(अद्वैत वाद ) का अनुयायी होने
के कारण सृष्टि के कण कण में
मीर ने जिस अलौकिक सौन्दर्य को देखने की क्षमता प्राप्त की ,
उसी ने उसे रचनात्मक ऊंचाई तक पहुंचाया ।
मीर साहब का जन्म आगरा के अकबराबाद में 1772
ईस्वी में हुआ था ।मीर के पिता
सूफ़ीयत से प्रभावित होकर फ़कीर हो गये थे ,और घर परिवार त्याग दिया था ।मीर के पिता को लोग " मौतककी "कहकर पुकारते थे ,जो फ़कीरी की मस्ती में डूबे रहते थे ।मीर पर अपने पिता की
आध्यात्मिक साधना का बहुत प्रभाव रहा ।
25 _26 वर्ष की आयु में ही मीर एक उन्माद ग्रस्त शायर के रुप में विख्यात हो गये ।
मीर के उन्माद पर टिप्पणी करते हुए "अली सरदार जाफ़री "
ने बड़ा सटीक विश्लेषण किया है
कि
'" चन्द महीनों में मीर इस बीमारी से अच्छे तो हो गये ,लेकिन दीवानगी एक ख़ूबसूरत परछाईं की तरह सारी उम्र उनकी शायरी पर मंडराती रही ।दीवाने और शायर में एक फ़र्क होता है। दीवाना अपने सपनों को अपने मस्तिष्क से अलग नहीं कर सकता और न उसकी क्रमहीनता में क्रम पैदा कर सकता है ,लेकिन
शायर अपने ख़्वाबों के बिखरे जलवों को संपादित करके एक आकृति बनाता है और उसको अपने मस्तिष्क से अलग करके एक क़ागज पर परिवर्तित कर देता है "
मीर साहब दरम्याना क़द
दुर्बल शरीर और गेहूँआ रंग के थे ।हर काम गंभीरता और आहिस्ते से करते थे ।बातें बहुत कम , वह भी आहिस्ता आवाज़ में,नरमी और कोमलता से। बुढापे ने इन गुणों को और भी दृढ़ कर दिया था ।
मीर साहब का इंतकाल 1812
लखनऊ में हुआ।
मीर तक़ी मीर के कुछ शेर
1 उसके फ़रोग_ए _हुस्न से ,
झमके है सबमें नूर ,
शम् _ए _हरम हो या दिया सोमनात का ।
अर्थ =ब्रहमांड को चलाने वाली शक्ति एक ही है ।उसी के सौन्दर्य का प्रकाश सब जगह है ,फिर चाहे मस्जिद का चिराग हो या
सोमनाथ के मंदिर में जलता हुआ दीपक ।
2 कल पांव एक कासा _ए _सर
पर जो आ गया ,
यकसर वो उसतख़वान शिकस्तो से चूर था ।
कहने लगा कि देख के चल राह ,
बेख़बर ।
मैं भी कभू किसी के सर_ए _पुर
ग़ुरूर था ।
अर्थ = कल अचानक मेरा पांव एक मानव खोपड़ी पर पड़ गया ,
एक पल में वह चूर चूर हो गई ,
जैसे वह खोपड़ी कहने लगी ,कि देखकर चल इस क्षणभंगुरता को
भूले हुए मनुष्य,मैं भी कभी
अहंकार से भरा पुतला था ।
आगे और है ....
3. अय नुकीले,ये थी कहाँ की अदा
ख़ुब गई जी में,तेरी बांकी अदा ।
4 अय दोस्त,कोई मुझसा ,रुसवा न हुआ होगा,
दुश्मन के भी दुश्मन पर ,ऐसा न
हुआ होगा।
5 अय वो कोई जो आज पिये है
शराबे_ए _ऐश ,
ख़ातिर में रखियो कल के भी
रंज _ओ ख़ुमार को !
अर्थ =जो आज भोग विलास के नशे में मस्त है,उसे आने वाले कल के दुखों और पश्चाताप की ग्लानि के ख़ुमार को भी ध्यान में रखना चाहिए।
6 आलम में दिल का कोई तलबगार न पाया ,
इस जिनस का यां हमने ख़रीदार न पाया ।
7 न निगह न पयास ने वादा ,
नाम को हम भी यार रखते हैं।
8 आईना भी हैरत से मुहब्बत की
हुए हम ,
पर ,सेर हो उस शख्स का दीदार न पाया ।
अर्थ =हम प्रेम में डूबकर प्रेमिका का आईना भी बन गये ,पर दुर्भाग्य ,इतना सब करके भी हमने अपनी प्रेमिका को जी भरकर नहीं देखा !
9 आरज़ूएं हज़ार रखते हैं,
तो भी हम दिल को मार रखते हैं।
10 अब कि हज़ार रंग गुलिस्तों में आए गुल ,
पर ,उस बग़ैर अपने को जी न भाए गुल ।
11 मुजरिम हुए हम ,दिल देके वर्ना,
किसको किसू से होती नहीं चाह ।
अर्थ =हम दिल देके बंध गये हैं,
वर्ना चाह या प्रेम की इच्छा तो सभी को होती है !
12 क्या क्या अजीब दोस्त मिले मीर ख़ाक में,
नादान यां किसी को भी किसी का
ग़म हुआ !
अर्थ =कैसे कैसे आत्मीय मित्र ,सब के सब खाक में मिल गये ।क्या यहाँ किसी को किसी के जाने का दुःख अधिक देर तक रहा ?
13 आज कुछ सुनते हैं कि
फ़रदा _ओ _क़द आरा होगा ,
देर कुछ इतनी नहीं क़यामत के आने में।
अर्थ =सुना है ,कल प्रिया ख़ूब सज संवर कर हमें चकित करेगी ,
अब प्रलय के आने में कोई देर नहीं ।
14 "मीर नाम एक जवां सुना होगा,
उसी आशिक़ के यार हैं हम भी ।
15 कुछ इश़क _ओ _हवस में
फ़र्क भी कर ,
किधर है वो इमतियाज़ तेरा !
16.शुक्र कर दाग़ _ए _दिल का
रुये ग़ाफ़िल ,
किसको देते हैं दीदा _ ए_बेदार ।
अर्थ =हे अचेत ।अपने हृदय के दाग़ का आभारी हो ,किसी किसी को ही ऐसी अंतर्दृष्टि मिलती है ।
17.किया था रेख़ता पर्दा सुख़न का ,
सो ठहरा यही फ़न हमारा ।
अर्थ =हमने कभी अपने भीतर उठ रहे विचारों को ही शायरी में
ढालने की कोशिश की थी ,सौभाग्य से वही कोशिश अब हमारी कला बन गई ।
18. मुहब्बत दरिया में जा डूबना ,
कुएं में न गिरना ,यही चाह है ।
अर्थ =प्रेम दरिया जैसा पवित्र है ,
जबकि वासना कुएं में डूब कर गिर सा जाना है ।तुम कुएं में न गिरो यही हमारी चाह है ।
19 .शहर में जो नज़र पड़ा उसका ,
कुशता _ए _नाज़ या तग़ाफुल था ।
अर्थ =हमने तो इस शहर में जिसे भी देखा ,वही या तो उसके
सौन्दर्य भान का कुचला हुआ था ,
या उसकी उपेक्षा का शिकार!
20.मीर साहब भी उसके हाँ थे पर ,
जैसे गुलाम कोई होता है !
ये शेर मीर साहब के प्रतिनिधि शेर न समझें जाएं।
संकलन
विजय पंजवानी
21-1-2018

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