कुछ सोच रही मन मस्तिष्क में
तन्हा खड़ी नदियाँ के बीच
वो लड़की स्वछंद घूम रही
विचरण कर रही खुले आसमाँ के बीच
मन में उठ रहे भँवरों के तीर
उद्वेलित,ससंकित ये मौसम बहार
संध्या की घड़ी भी हैं
साथ ये नदी भी हैं
ऋतु रानी भी दे रही हैं साथ
मन में क्या उठ रहा हैं अब ज्वार
संसार में होते हैं नित्य नये परिवर्तन
लड़की होती हैं समाज का दर्पण
साहिलों से टकराती हैं
तुफानो से लड़ जाती हैं
बाज़ुओं में उसके अब हैं भार
साथ में रखती ममता की बहार।।
®आकिब
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