कविता- भीड़

बेचैन करती यह भीड़!
कौन हैं आखिर भीड़!
कैसे बन जाती हैं भीड़!
हर बार नया शिकार,
अरे! कैसे ढूंढ लेती हैं,ये
भीड़!
हम ही तो हैं इस भीड़ में!
रोज़-रोज़ अपनी
परेशानी से
घिरे हुए!
हैं बेरोज़गार,परेशां किसान
घर को चला नही पा रहा वो!
भरदो इनके ही दिमाग में!
हिन्दू-मुश्लिम का खेल!
फिर बना डालो किसी भी
निर्दोष को इसका शिकार!
जैसे बनाते चले आ रहे हो!
लोगो को जातीय-धार्मिक
मानसिकता का गुलाम
सदियों से सदियों तक!
यही खेल चल रहा हैं!
हां शायद चलता ही रहे!
भीड़ ही तो हैं।
ढूंढ लो सुराग!
नही ढूंढ सकते हो!
क्यों कि मर गया हैं
हम सबके भीतर का इंसान!
जो सदियों से इक भीड!
हां भीड़ बन चूका हैं!
संवेदनाएं धूमिल हो चुकी हैं!
वेदनाएं भीड़ की मर चुकी हैं!
बहुत खुशी मिल रही हैं!
निहत्ते को मार कर!
सारे दुःखो का अंत हो जाता हैं!
मार कर किसी को
किसी भी वजह से!
भीड़ ही तो हैं हम!
हां भीड़ किसी की नही सुनती!
ना चेहरा होता हैं कोई!
भीड़ हैं! हां भीड़!

लेखक
आकिब जावेद

नोट-
यह कविता सुप्रीम कोर्ट द्वारा मोब लीचिंग में आदेश देने के उपरान्त भीड़ द्वारा निर्दोष लोगो की हत्या का  विरोध प्रदर्शित एवं अपनी संवेदनाएं दुःख प्रकट कर रही हैं।

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