ए अमीर शह्र तुझको शर्म आनी चाहिये!!ग़ज़ल

अपने शह्र में एक पुरानी रिवायत होनी चाहिये
आने वाले दुश्मनो की मेजबानी होनी चाहिये

होते दंगे,खूब पंगे,लोग भी हैं भूखे नंगे
ए अमीर ए शह्र तुझको शर्म आनी चाहिये

गर बंदा परवरदिगार हैं तू थोड़ा हया रख
लहज़ा नर्म,आँखों में आना पानी चाहिये

जहाँ बिकता हो रंजो गम,मुफ़लिसी भी ना हो कँही
अब अपने देश में भी ऐसी राजधानी होनी चाहिये

नफ़रत,जात,धर्म के नाम पे हो रहा बंटवारा
ए अमीर ए शह्र तुझको शर्म आनी चाहिये

मर्द को अब अपनी मानसिकता मिटानी चाहिये
हर औरत को देखकर जवानी नही दिखानी चाहिये

अस्मिता लूटी,लुटे नौजवान देख सब परेशान
ए अमीर ए शह्र तुझको शर्म आनी चाहिये

अपने बच्चों को नैतिकता का पाठ पढाना चाहिये
महिलाओ के सम्मान की सीख सिखानी चाहिये

हल्की,फुल्की,छोटी,मोटी सब बात आनी चाहिये
हलक से मुँह तक उनकी बात ना आनी चाहिये

मस्जिद,मंदिर के फेर में मुर्ख इंसान बैर करके बैठा हैं
देश के खातिर सरहद में तुझको भी कुर्बानी देनी चाहिये

धर्म के ठेकेदारों का भी कुछ इंतज़ाम होना चाहिये
अब इनको भी इंसान होना चाहिये,शर्म आनी चाहिये।।

®आकिब जावेद

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