ग़ज़ल के मुताल्लिक़ भाग-(1)
आदाब मित्रों 🙏
आइए हम ग़ज़ल के विषय में कुछ जानकारियां लेते हैं। आख़िर ग़ज़ल चीज़ है क्या। ग़ज़ल का मतलब अपने प्रेयसी या प्रिय से बात करना। अपने दिल के एहसासत को बयान करना, जिसमें ख़ुशी, ग़म, दर्द पीड़ा वग़ैरह होते हैं।
ग़ज़ल एक उर्दू शायरी का वो मकाम है, जो बेहद खूबसूरत और दिलचस्प माना जाता है। ग़ज़ल एक ऐसी विद्या है जिसे लय में ढाली जाती है और इसे बड़ी आसानी से गुनगुनाई भी जाती है। ये दो मिसरों में लिखे गये शेर का एक ऐसा संग्रह है जिसमें काफ़िया* और रदीफ़* की अहम भूमिका होती है। एक ग़ज़ल में मतला से लेकर मक्ता तक कम से कम पाँच अशआर(शेर का बहुवचन) लिखे जाते हैं। या अधिक से अधिक दस या बारह अशआर भी लिखे जाते हैं।
दो मिसरों(शेर) में ही पुरी बात कह कह कर संग्रह किये जाने को ही ग़ज़ल कहते हैं। ग़ज़ल का हर मिसरा एक ही बहर*(वज़्न,भार) का होना इसमें आवश्यक है।
ग़ज़ल यूँ तो प्रिय या प्रेमिका से बात करने को ही कही जाती है मगर आज के दौर में इसे हर विषय पर कही जा सकने वाली विद्या बन चुकी है। आज इसके नये नये स्वरूप उभर के हमारे सामने आये हैं। आर्थात् हम आज हर विषय पर ग़ज़लें कह सकते हैं। जैसे कि, आज के नये हालात को देखते हुए, दुनियावी दौर को देखते हुए या हमारे आसपास की घटनाओं को देखते हुए इत्यादि।
सच माने तो ये विद्या बड़ी ही दिलचस्प और ख़ूबसूरत है।
#ग़ज़ल_के_मुतअल्लिक़ (भाग-२)
१. ग़ज़ल - ग़ज़ल का शाब्दिक अर्थ होता है - प्रेयसी के सौंदर्य हेतु लिखी गई पद्यात्मक रचना। मगर अब ग़ज़ल सिर्फ़ इश्क़, मोहब्बत, सनम की ही चीज़ नहीं रही, बल्कि इसका दायरा कहीं अधिक व्यापक हो चुका है। ग़ज़ल एक बंधी बंधाई रचना होती है, जो शेर के समूह से बनती है। इसका प्रत्येक शेर अपने आप में संपूर्ण होता है, मतलब इसका कोई विषय नहीं होता। एक शेर प्रेयसी के लिए, वहीं दूसरा माँ के लिए लिखा जा सकता है, वहीं तीसरा किसी सामाजिक समस्या को इंगित कर सकता है। जिसमें एक ही रदीफ़ एवम् तुकांत शब्दों (काफ़िये) का पालन किया जाता है।
२. मिसरा - ग़ज़ल द्विपदी रचना होती है, इसकी किसी भी एक पंक्ति को मिसरा कहा जाता है। जैसे मेरा ही एक शेर है -
कितनी गहरी बैठी थी वो!
यादें उचली, बाहर अाई!!
इसमें ऊपर वाली पंक्ति 'ऊला मिसरा' कहा जाता है, और नीचे वाली पंक्ति 'सानी मिसरा' कहलाती है।
३. शेर - दो मिसरे से बना पद, जिसमें बहर की रवायत का पालन किया जाता है, उसे 'शेर' कहा जाता है। शेर में गत्यात्मकता होनी आवश्यक है, वरना वह तो साधारण रूप से कही गई बात हो जाएगी।
४. अशआर - शेरों के बहुवचन को 'अशआर' कहा जाता है। अतः दो या अधिक शेरों का समुच्चय 'अशआर' कहलाएगा।
५. मतला एवं मक़्ता - किसी भी ग़ज़ल का अधिकांशतः पहला शेर, जिसमें दोनों मिसरों में काफ़िया होता है, उसे 'मतला' कहा जाता है। इसी तरह ग़ज़ल का आख़िरी शेर जिसमें शायर का उपनाम (तख़ल्लुस) होता है, उसे 'मक़्ता' कहा जाता है।
एक ग़ज़ल में एक से अधिक मतले भी हो सकते हैं।
मेरी ही एक ग़ज़ल का मतला -
यादें ज्यों ही भीतर अाई!
आंखें प्रेमिल थी, भर अाई!!
६. रदीफ़ - किसी भी ग़ज़ल में वह शब्द-समूह जिसकी हर शेर के सानी मिसरे में आवृत्ति होती है, उसे 'रदीफ़' कहा जाता है। ऊपर के शेर में "आई" शब्द रदीफ़ है। किसी किसी ग़ज़ल में रदीफ़ नहीं होती। उसकी चर्चा फिर कभी।
७. काफ़िया - काफ़िया ग़ज़ल में तुकांत (Rhymic) शब्दों को कहते हैं। उदाहरणार्थ मेरी ग़ज़ल का ही मतला एवं शेर देखें।
यादें ज्यों ही भीतर अाई!
आंखें प्रेमिल थी, भर अाई!!
कितनी गहरी बैठी थी वो!
यादें उचली, बाहर अाई!!
पहले शेर में दो काफ़ियों का निर्वहन हुआ है - 'भीतर' एवं 'भर', लिहाज़ा यह मतला कहलायेगा।
शेर के ऊला मिसरे में काफ़िये अथवा रदीफ़ की बंदिश नहीं होती, सानी मिसरे में फिर काफ़िया - 'बाहर' का प्रयोग हुआ। आगे आने वाले शेरों के सानी मिसरों में इसी तरह तुकांत शब्द (काफ़िये) प्रयोग में आएंगे। जैसे - घर, कर, झर, पर, छूकर, पैकर, पीकर, बर, भर इत्यादि। इनमें "आई" रदीफ़ का निर्वहन भी हुआ है।
#ग़ज़ल_के_मुताल्लिक़_भाग (3)
आदाब मित्रों🙏
मैं अपने कुछ निजी विचार आप सभी के समक्ष पेश करना चाहता हूँ, जो शायरी के संबंध में है।
दोस्तों शायरी किसी डिग्री या डिप्लोमा की मोहताज़ नहीं है ये तो सभी जानते हैं। ये एक अलहदा मिज़ाज लिए हुए होती है। शायरों के लिए या शायरी मिज़ाजों के लिए यह सब तो आसान है पर ग़ैर मिज़ाजों के लिए ज़रा मुश्किल हो जाती है। (वैसे काम कोई भी हो मुश्किल नहीं होता अगर ठान लें करना तो आप उसे पूरा भी कर लेते हैं) शायरी लगभग सभी करना चाहते हैं पर कर नहीं पाते क्यों कि मन में उस तरह के भाव आते ही नहीं हैं। अफ़सोस कि काग़ज़ क़लम यूँ ही पड़े रह जाते हैं, अथवा कुछ लिख नहीं पाते। ख़ासतौर से मैं उन्हीं लोगों से मुख़ातिब होना चाहता हूँ और मैं उनको मशविरा यही देना चाहूँगा कि वे दूसरे शायरों को ख़ूब पढ़ें और अच्छी किताबों को भी अपने ज़हन में उतारें, शब्दों का भण्डारण अपने अंदर करते रहें। दूसरों शायरों के अशआर(शेर का बहुवचन)पढकर उनके सानी (नीचे का) या ऊला(ऊपर का) मिसरे की जगह आप अपना मिसरा रखकर देखें। उनके मिसरे की जगह आपका मिसरा लगाया हुआ कितना जँच रहा है यह महसूस करने की कोशिश करें।
कुछ बहरो-वज़्न या अरकान की जानकारी भी देना चाहूँगा। ये एक प्रकार का मीटर का काम करते हैं कि किसी मिसरे की लम्बाई कितनी होनी चाहिए। या बटखरे का काम करते हैं कि मिसरे का वज़्न कितना होना चाहिए। दोस्तों इसमें मात्राओं का खेल है जैसे कि मेरा एक शेर-
कोई रग़बत नहीं अमीरों सी,
कब्र पे फूल इक चढ़ा देना,
इस शेर का वज़्न 2122 1212 22
इस शेर की बहर (बटखरा या मीटर) का नाम-फ़ाइलातून मुफ़ाईलुन फ़ेलुन, है
उदाहरण स्वरूप
इस शेर के ऊला(ऊपर का) मिसरे की मात्रा आप इस प्रकार गिन सकते हैं।
को(2) ई(1) रग़(2)बत(2) न(1)हीं(2)अ(1)मी(2) रों(2)सी(2)
आप मात्रा गिनने की प्रक्रिया को इस तरह और समझ सकते हैं।
क(1) का(2) कि(1) की(2) कु(1) कू(2) के(2) कै(2) को(2) कौ(2) कं(2) क:(2)
अ(1) आ(2) इ(1) ई(2) उ(1) ऊ(2) ए(2) ऐ(2) ओ(2) औ(2) अ:(2)
ये बहर और वज़्न का सारा खेल अस्ल में स्वरों पर ही अधारित है।
आप कहीं कहीं आवश्यकता पड़ने पर, की, का, कू, कौ, को, ई, ए, ऐ, जैसे मात्राओं को गिराकर '1' के तौर पर भी आप गिन सकते हैं। शायरी की दुनिया में इसकी छूट भी है।
ऐसे दर्जनों बहरें (बटखरे)हैं जिनमें से कुछ के नाम इस तरह हैं।
1) फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
2)फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन
3)फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ा
4)फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
5)फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन
इन्ही दर्जनों बहरों पर आपको लाखों गीत, ग़ज़लें, इत्यादि पढ़ने सुनने को मिल जाएंगे।
"उपरोक्त आलेख के संबंध में अगर आपके कुछ प्रश्न हों तो नि:संकोच पूछ लें।"
वैसे मैं कोई उस्ताद शायर नहीं हूँ, मैं जितना जानता हूँ उतना आपको बताने का प्रयास करूँगा। मैं भी आप ही की तरह अभी सीख ही रहा हूँ।
धन्यवाद 🙏😊
क्रमशः
~आकिब जावेद
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